धारा 5  विशेष न्यायाधीश के अधिकार एवं प्रक्रिया-1) विशेष न्यायाधीश किन्हीं अपराधों का संज्ञान उसे विचारण के लिए अभियुक्त की सुपुर्दगी के बिना कर सकता है और विचारण के लिए दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) में मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों के विचारण के लिए विनिर्दिष्ट प्रक्रिया अपनाएगा।

2)  विशेष न्यायाधीश अपराध से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबध्द किसी व्यक्ति का साक्ष्य अभिप्राप्त करने की दृष्टि से उस व्यक्ति को इस शर्त पर क्षमादान कर सकता है कि वह अपराध के संबंध में और उसके किए जाने में चे कर्ता या दुष्प्रेरण के रूप में संबध्द प्रत्येक अन्य व्यक्ति के संबंध में समस्त परिस्थितियों की जिनकी उसे जानकारी है पूर्ण और सत्यता प्रकटन कर दे और तब दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) की धारा 308 की उपधारा 1 से 5 तक के प्रयोजन के लिए समझा जाएगा कि क्षमादान उस संहिता की धारा 307 के अधीन दिया गया है।

3) उपधारा  1 की उपधारा 2  में किसी बात के होते हुए भी, दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) के प्रावधान जहाँ तक वह इस अधिनियम से असंगत न हो विशेष न्यायाधीश की कार्यवाहियोँ पर लागू होंगे और इन प्रावधानों के प्रयोजन के लिए विशेष न्यायाधीश का न्यायालय सत्र न्यायालय समझा जाएगा और विशेष न्यायाधीश के समक्ष अभियोजन संचलित करने वाला व्यक्ति लोक अभियोजक समझा जाएगा।

4)  उपधारा 3  के उपबऩ्धों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) की धारा  326  और 475  के प्रावधान जहाँ तक संभव हो, विशेष न्यायाधीश के समक्ष की कार्यवाहियों पर लागू होंगे और इन प्रावधानों के प्रयोजन के लिए विशेष न्यायाधीश मजिस्ट्रेट समझा जाएगा।

5)  विशेष न्यायाधीश किसी दोषसिद्ध व्यक्ति जो उस अपराध के लिए विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंडादेश पारित कर सकता है जिस अपराध के लिए वह व्यक्ति दोषसिध्द हुआ है।

6)  इस अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराध का विचारण करने वाला विशेष न्यायाधीश दंड विधि (संशोधन) अध्यादेश, 1944 (1944 का अधयादेश 38)  द्वारा जिला न्यायाधीश को प्रदत्त शक्तियों एवं कृत्योँ का प्रयोग कर सकेगा।



धारा 6  संक्षिप्त विचारण करने की शक्ति-1) जहाँ विशेष न्यायाधीश धारा 3 की उपधारा 1 में विहीत अपराध का विचारण किसी लोक सेवक जिसके विरुद्ध आवश्यक वस्तु अधिनियम , 1955( 1955  का 10)  की धारा 12-क की उपधारा 1 में वर्णित विशेष आदेश अथवा उस धारा की उपधारा 2 के खंड क के उल्लंघन का आरोप है तो इस अधिनियम की धारा 5 अथवा दंड प्रक्रिया संहिता 1973(1974 का सं 2) की धारा 260  में किसी बात के होते हुए भी विशेष न्यायाधीश उस अपराध का संक्षिप्त विचारण करेगा और संहिता की धारा 262  से धारा 265 दोनों को सम्मिलित करते हुए के प्रावधान जहाँ तक संभव होगा लागू होंगेः

परन्तु यह कि इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण दोषसिध्द होने पर विशेष न्यायाधीश के लिए यह विधि संगत होगा कि वह एक वर्ष की अवधि तक का दंडादेश दे सकता हैः

परन्तु यह और भी कि इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व या उसके दौरान विशेष न्यायाधीश को ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकरण ऐसी प्रकृति का है कि एक वर्ष से अधिक अवधि के कारावास का दंडादेश आवश्यक होगा अथवा अनय किसी कारण से उसका संक्षिप्त विचारण अपेक्षित नहीं  है तो विशेष न्यायाधीश पक्षकारों की सुनवाई के पश्चात आदेश अभिलिखित करेगा और तत्पश्चात किसी साक्षी को जिसका कि परीक्षण किया  चुका है पुनः बुला सकेगा और संहिता के प्रावधानोँ में विनर्दिष्ट मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों के विचारण की प्रक्रिया अपनाएगा या मामले का विचारण जारी रखेगा।

2)  इस अधिनियम दंड प्रकिता संहिता 1973(1974 का सं 2) में किसी बात के होते हुए भी, इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण, जिसमें विशेष न्यायाधीश द्वारा एक मास से अनधिक की अवधि के कारावास और दो जार रूपए से अनधिक जुर्माने से दंड दिया गया है और उक्त संहिता की धारा 425 के अधीन इसके अतिरिक्त कोई आदेश दिया गया हो अथवा दंड के विरुद्ध कोई अपील नही होगी किन्तु उपरोक्त वर्णित सीमा से अधिक द॔डादेश पर अपील हो सकेगी।

जो कोई लोक सेवक होते हुए या ने की प्रत्याशा रखते हुए, वैध पारिश्रमिक से भिन्न प्रकार का भी कोई परितोषण किसी बात करने के प्रयोजन से या ईनाम के रूप में किसी व्यक्ति से प्रतिग्रहीत या अभिप्राप्त करेगा या करने को सहमत होगा या करने का प्रयत्न करेगा कि वह लोक सेवक कोई पदीय कार्य करे या पदीय कार्य करने का लोप करे या किसी व्यक्ति को अपनी पदीय कार्यों के प्रयोग से कोई अनुग्रह करे या करने से प्रतिविरत करे अथवा केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या संसद या राज्य के विधान मंडल या किसी स्थानीय प्राधिकारी, निगम या धारा 2 के खंड ग में वर्णित शासकीय कम्पनी अथवा किसी लोक सेवक से, चाहे नामित हो या अन्यथा ऐसे कारावास से जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी किन्तु जो छह मास से कम कीनही होगी दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय गा।

स्पष्टीकरण- क- “लोक सेवक होने की प्रत्याशा रखते हुए” यदि कोई व्यक्ति जो किसी पद पर होने की प्रत्याशा न रखते ए दूसरों को प्रवंचना से विश्वास कराकर कि वह किसी पद पर पदासीन होनेवाला है, और तब वह उसका अनुग्रह करेगा, उससे पारितोषण अभिप्राप्त करेगा, तो वह छल करने का दोषी हो सकेगा। किन्तु वह इस धारा में परिभाषित अपराध का दोषी नही है।

ख. “परितोषण”- परितोषण शब्द धन संबंधी परितोषण तक, या उन परितोषणों तक ही जो धन में आँ के जाने योग्य है, सीमित नहीं है ।

ग. “वैध पारिश्रमिक” – वैध पारिश्रमिक शब्द उस पारिश्रमिक तक ही सीमित नहीं है जिसकी माँग कोई लोक सेवक विधिपूर्ण रूप से कर सकता है, किन्तु उसके अन्तर्गत वह समस्त पारश्रमिक आता है, जिसको प्रतिग्रहीत करने के लिए वह उस सरकार द्वारा या उस संगठन द्वारा, जिसकी सेवा में वह है, उसे दी गई ।

घ. “करने के लिए हेतु या इनाम” – वह व्यक्ति जो वह बात करने के लिए हेतु या इनाम के रूप में जिसे करने का उसका आशय नही  या वह ऐसा करने की स्थिति में नहीं है अथवा जो उसने नहीं की है, परितोषण प्राप्त करता है, इस स्पष्टीकरण के अन्तर्गत आता है।

ड़  जहाँ कोई लोक सेवक किसी व्यक्ति को  गलत विश्वास के लिए उत्प्रेरित करता है कि उसके प्रभाव से उसने, उस व्यक्ति के लिए अभिलाभ प्राप्त किया है और इस प्रकार उस कार्य के लिए कोई रूपया या अन्य परितोषण इनाम के रूप में प्राप्त करने के लिए उत्प्रेरित करताहै तो ऐसे लोक सेवक ने इस धारा के अधीन अपराध किया है।

टिप्पणियाँ-

रिश्वत— माँग—अभियुक्त कोई जावक लिपिक नहीं है जो सम्पत्ति मूल्यांकन प्रमाण-पत्र जारी कर सकता है—वह केवल एक अनुशंसा प्राधिकारी है— यह और कि, अभिकथित रिश्वत की माँग से पूर्व उक्त सम्पत्ति मूल्यांकन प्रमाण-पत्र अग्रेषित और अन्तिम प्राधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित किया जा चुका था— यह रिश्वत की माँग के बारे में संदेह उत्पन्न करता है, अतः दोषमुक्ति उचित थी। राज्य बनाम नरसिम्हाचारी ए. आई. आर. 2006 एस. सी. 628 । .

धारा 2. परिभाषाएँ

इस अधिनियम में जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो -

ग. “लोक सेवक” से अभिप्रेत है-



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