नारी को व्यक्ति नहीं मानता था कानून
स्त्री कौन है? स्त्री वह मादा इन्सान है जिसने अपना पूर्ण जीवन ही लड़ते हुए बिताया, कभी अपनों के लिए तो कभी अपने अस्तित्व के लिए। कभी सामाजिक मानदंडों से तो कभी धर्म के ठेकेदारों द्वारा बनाए नियम कायदों से लड़ी। सत्ताधारी पुरुष समाज ने नारी को दोयम दर्जा देते हुए अनेक सामाजिक व धार्मिक नियम बना डाले, इतना ही नहीं न्यायालयों पर भी पितृसत्तात्मक सोच का प्रभाव रहा। स्त्री को अपने कानूनी अस्तित्व को बहाल कराने हेतु लगभग साठ साल की लंबी लड़ाई लडऩी पड़ी।
हमारा समाज पुरुष प्रधान है। इसके मानक पुरुषों के अनुकूल रहते हैं। तटस्थ मानकों की भी व्याख्या, पुरुषों के अनुकूल हो जाती है। कानून में हमेशा माना जाता है कि जब तक कोई खास बात न हो तब तक पुल्लिंग में, स्त्री लिंग सम्मिलित माना जायेगा। कानून में कभी कभी पुल्लिंग पर अधिकतर तटस्थ शब्दों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि 'व्यक्ति'। अक्सर कानून कहता है कि, यदि किसी 'व्यक्ति' (person)-
-की उम्र ... साल है तो वह वोट दे सकता है,
-ने .......... साल ट्रेनिंग ले रखी है तो वह वकील बन सकता है,
-ने विश्र्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त की है तो वह विद्या परिषद का सदस्य बन सकता है, आदि...आदि।
ऐसे कानून पर अमल करते समय, अक्सर यह सवाल उठा करता था कि इसमें 'व्यक्ति' शब्द की क्या व्याख्या है। इसके अन्दर हमेशा पुरुषों को ही व्यक्ति माना गया, महिलाओं को नहीं। यह भी अजीब बात है। भाषा, प्रकृति तो महिलाओं को व्यक्ति मानती है पर कानून नहीं। महिलाओं को, अपने आपको, कानून में व्यक्ति मनवाने के लिए साठ साल की लंबी लड़ाई लडऩी पड़ी और यह लड़ाई शुरू हुई उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से।
व्यक्ति शब्द पर इंग्लैंड में कुछ निर्णय
इस बारे में सबसे पहला प्रकाशित निर्णय Chorlton Vs. Lings (1869) का है, इस केस में कानून में पुरुष शब्द का प्रयोग किया गया था। उस समय और इस समय भी, इंगलैंड में यह नियम था कि पुल्लिंग में, स्त्री लिंग भी शामिल है। इसके बावजूद यह प्रतिपादित किया कि स्त्रियों को वोट देने का अधिकार नहीं है। इंग्लैंड के न्यायालयों में इसी तरह के फैसले होते रहे जिसमें न केवल पुरुष बल्कि व्यक्ति शब्द की व्याख्या करते समय, महिलाओं को इसमें सम्मिलित नहीं माना गया। जहां व्यक्ति शब्द का भी प्रयोग किया गया था वहां भी महिलाओं को व्यक्ति में शामिल नहीं माना गया। इन मुकदमों में Bressford HopeVs. Lady Sandhurst (1889), Ball Vs. Incorp, society of Law Agents (1901) उल्लेखनीय हैं । 1906 में इंगलैण्ड की सबसे बड़ी अदालत हाउस आफ लॉर्डस ने Nairn Vs. Scottish Uniervisty में यही मत दिया। यही विचार वहीं की अपीलीय न्यायालय ने भी Benn Vs. Law Society (1914) में व्यक्त किये।
इंग्लैंड में यही क्रम जारी रहा। इन न्यायालयों में लड़ाई के अतिरिक्त वहाँ समाज में भी यह मांग उठी कि महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिले। भारत के पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्जन भी महिलाओं को वोट का अधिकार देने के विरोधी खेमी में थे। उनका तो यहाँ तक कहना था कि यदि भारत के लोगों को पता चलेगा कि इंग्लैण्ड की सरकार महिलाओं के वोट पर बनी है तो भारतवासी उस सरकार पर विश्र्वास करना छोड़ देंगे। इंग्लैंण्ड में महिलाएँ वोट देने के अधिकार से 1918 तक वंचित रहीं। उन्हें इसी साल कानून के द्वारा वोट देने का अधिकार मिला। इंग्लैण्ड में स्त्रियों के साथ बाकी भेदभाव लैंगिक अयोग्यता को हटाने के लिए 1919 में बने अधिनियम से हटा।
व्यक्ति शब्द पर अमेरिका में कुछ निर्णय
अमेरिका तथा अन्य देशों में व्यक्ति शब्द की व्याख्या का इतिहास कुछ अलग नहीं था। अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने Bradwell Vs.lllnois (1873) में व्यवस्था दी है कि विवाहित महिलाएँ व्यक्ति की श्रेणी में नहीं हैं और वकालत नहीं कर सकतीं। इसके दो वर्ष बाद ही Minor Vs. Happier Sett के केस में अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने यह तो माना कि महिलाएँ नागरिक हैं पर यह भी कहा कि वे विशेष श्रेणी की नागरिक हैं और उन्हें मत डालने का अधिकार नहीं हैं। अमेरिका में 21 वर्ष से ऊपर की महिलाओं को मत देने की अनुमति अमेरिकी संविधान के 19वें संशोधन (1920) के द्वारा ही मिल पायी।
व्यक्ति शब्द पर दक्षिण अफ्रीका में कुछ निर्णय
इस विवाद के परिपेक्ष में, दक्षिण अफ्रीका का जिक्र करना जरुरी है। यहाँ पर इस तरह के पहले मुकदमे Schle Vs. Incoroporated (1909), में महिलाओं को व्यक्ति शब्द में नहीं शामिल किया गया और उन्हें वकील बनने का हकदार नहीं माना गया। पर केपटाउन की न्यायालय ने 1912 में माना कि महिलाएँ 'व्यक्ति' शब्द में शामिल हैं और वकील बनने की हकदार हैं। कहा जाता है कि इस तरह का यह एक पहला फैसला था लेकिन यह ज्यादा दिन तक नहीं चला। यह निर्णय अपीलीय न्यायालय द्वारा Incorporated Law Society Vs. Wokkey (1912) में रद्द कर दिया गया। इस अपीलीय न्यायालय के फैसले का आधार यही था कि महिलाएं व्यक्ति शब्द की व्याख्या में नहीं आती हैं।
व्यक्ति शब्द पर भारत में कुछ निर्णय
कलकत्ता और पटना उच्च न्यायालय
अपने देश में भी 'व्यक्ति' शब्द की व्याख्या करने वाले मुकदमे हुए हैं। पहले वकील नामांकित करने का काम उच्च न्यायालय करता था। अब यह काम बार कौंसिल करती है। वकील नामांकित करने के लिए लीगल प्रैक्टिशनर अधिनियम हुआ करता था इसमें 'व्यक्ति' शब्द का इस्तेमाल किया गया था। महिलाओं ने इसी अधिनियम के अन्दर वकील बनने के लिए कलकत्ता एवं पटना उच्च न्यायालयों में आवेदन पत्र दिया। कलकत्ता उच्च न्यायालय की पाँच न्यायमूर्ति की पूर्ण पीठ ने 1916 में {In re Reging Guha (ILR yy Calcutta290 = 351C 925)} तथा पटना उच्च न्यायालय की तीन न्यायमूर्तियों की पूर्ण पीठ ने 1921 में {In re Sudhansu Bala Mazra (A.I.R. 1922 Patna269) 8 ने निर्णय दिया कि महिलाएँ व्यक्ति शब्द में शामिल नहीं हैं और उनके आवेदन को निरस्त कर दिया गया। इसके बाद यह प्रश्न नहीं उठा क्योंकि 1923 में The Leagal Practitioners (Women) Act के द्वारा महिलाओं के खिलाफ इस भेदभाव को दूर कर दिया गया।
पर क्या किसी उच्च न्यायालय ने महिलाओं के पुराने कानून में व्यक्ति होना मानाः-
जी हां-वह है इलाहाबाद उच्च न्यायालय। क्रानीलिआ सोरबजी, एक पारसी महिला थीं। उनका भाई बैरिस्टर था और वह इलाहाबाद वकालत करने आया। वह उसी के साथ उसके घर आई। उन्हें वकालत का पेशा अच्छा लगा और उन्होंने वकालत करने की ठानी। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सामने अपना आवेदन पत्र वकील बनने के लिये दिया जो पहले खारिज कर दिया गया पर उनका 1 अगस्त 1921 को वकील की तरह नामित करने के लिये दिया गया आवेदन पत्र, 9 अगस्त 1921 में स्वीकार हुआ। यह नामांकन उच्च न्यायालय की इंग्लिश (प्रशासनिक) बैठक में हुआ था इसलिए यह प्रकाशित नहीं है।
क्रानीलिआ सोरबजी 'व्यक्ति' शब्द के अन्दर नामांकित होने वाली भारत की ही पहली महिला नहीं, बल्कि व्यक्ति खण्ड के अधीन दुनिया में कहीं भी नामांकित होने वाली पहली महिला थीं। क्रानीलिआ से पहले भी कई महिलाएँ नामांकित हुई हैं, लेकिन वे विशेष कानून की वजह से हुआ था जिसमें महिलाओं को वकील बनने का अलग से अधिकार दिया गया था।
व्यक्ति शब्द पर विवाद का अन्त
इस विवाद का अन्त कनाडा के एक मुकदमे Edwards Vs. Attorney General में हुआ। कनाडा के गर्वनर जनरल को सेनेट में किसी व्यक्ति को नामांकित करने का अधिकार था। सवाल उठा कि क्या वे किसी महिला को नामांकित कर सकते हैं। कैनेडा के उच्चतम न्यायालय ने सर्व सहमति से निर्णय लिया कि महिलाएँ व्यक्ति शब्द में शामिल नहीं हैं। इसलिए वे नामित नहीं हो सकती है। इस फैसले के खिलाफ अपील में, प्रिवी कांऊसिल ने स्पष्ट किया है कि, 'व्यक्ति शब्द में स्त्री-पुरुष दोनों हो सकतें हैं और यदि कोई कहता है कि व्यक्ति शब्द में स्त्रियों को क्यों शामिल किया जाय तो जवाब है कि क्यों नहीं?' लेकिन यह वर्ष 1929 में हुआ।
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स्त्री कौन है? स्त्री वह मादा इन्सान है जिसने अपना पूर्ण जीवन ही लड़ते हुए बिताया, कभी अपनों के लिए तो कभी अपने अस्तित्व के लिए। कभी सामाजिक मानदंडों से तो कभी धर्म के ठेकेदारों द्वारा बनाए नियम कायदों से लड़ी। सत्ताधारी पुरुष समाज ने नारी को दोयम दर्जा देते हुए अनेक सामाजिक व धार्मिक नियम बना डाले, इतना ही नहीं न्यायालयों पर भी पितृसत्तात्मक सोच का प्रभाव रहा। स्त्री को अपने कानूनी अस्तित्व को बहाल कराने हेतु लगभग साठ साल की लंबी लड़ाई लडऩी पड़ी।
हमारा समाज पुरुष प्रधान है। इसके मानक पुरुषों के अनुकूल रहते हैं। तटस्थ मानकों की भी व्याख्या, पुरुषों के अनुकूल हो जाती है। कानून में हमेशा माना जाता है कि जब तक कोई खास बात न हो तब तक पुल्लिंग में, स्त्री लिंग सम्मिलित माना जायेगा। कानून में कभी कभी पुल्लिंग पर अधिकतर तटस्थ शब्दों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि 'व्यक्ति'। अक्सर कानून कहता है कि, यदि किसी 'व्यक्ति' (person)-
-की उम्र ... साल है तो वह वोट दे सकता है,
-ने .......... साल ट्रेनिंग ले रखी है तो वह वकील बन सकता है,
-ने विश्र्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त की है तो वह विद्या परिषद का सदस्य बन सकता है, आदि...आदि।
ऐसे कानून पर अमल करते समय, अक्सर यह सवाल उठा करता था कि इसमें 'व्यक्ति' शब्द की क्या व्याख्या है। इसके अन्दर हमेशा पुरुषों को ही व्यक्ति माना गया, महिलाओं को नहीं। यह भी अजीब बात है। भाषा, प्रकृति तो महिलाओं को व्यक्ति मानती है पर कानून नहीं। महिलाओं को, अपने आपको, कानून में व्यक्ति मनवाने के लिए साठ साल की लंबी लड़ाई लडऩी पड़ी और यह लड़ाई शुरू हुई उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से।
व्यक्ति शब्द पर इंग्लैंड में कुछ निर्णय
इस बारे में सबसे पहला प्रकाशित निर्णय Chorlton Vs. Lings (1869) का है, इस केस में कानून में पुरुष शब्द का प्रयोग किया गया था। उस समय और इस समय भी, इंगलैंड में यह नियम था कि पुल्लिंग में, स्त्री लिंग भी शामिल है। इसके बावजूद यह प्रतिपादित किया कि स्त्रियों को वोट देने का अधिकार नहीं है। इंग्लैंड के न्यायालयों में इसी तरह के फैसले होते रहे जिसमें न केवल पुरुष बल्कि व्यक्ति शब्द की व्याख्या करते समय, महिलाओं को इसमें सम्मिलित नहीं माना गया। जहां व्यक्ति शब्द का भी प्रयोग किया गया था वहां भी महिलाओं को व्यक्ति में शामिल नहीं माना गया। इन मुकदमों में Bressford HopeVs. Lady Sandhurst (1889), Ball Vs. Incorp, society of Law Agents (1901) उल्लेखनीय हैं । 1906 में इंगलैण्ड की सबसे बड़ी अदालत हाउस आफ लॉर्डस ने Nairn Vs. Scottish Uniervisty में यही मत दिया। यही विचार वहीं की अपीलीय न्यायालय ने भी Benn Vs. Law Society (1914) में व्यक्त किये।
इंग्लैंड में यही क्रम जारी रहा। इन न्यायालयों में लड़ाई के अतिरिक्त वहाँ समाज में भी यह मांग उठी कि महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिले। भारत के पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्जन भी महिलाओं को वोट का अधिकार देने के विरोधी खेमी में थे। उनका तो यहाँ तक कहना था कि यदि भारत के लोगों को पता चलेगा कि इंग्लैण्ड की सरकार महिलाओं के वोट पर बनी है तो भारतवासी उस सरकार पर विश्र्वास करना छोड़ देंगे। इंग्लैंण्ड में महिलाएँ वोट देने के अधिकार से 1918 तक वंचित रहीं। उन्हें इसी साल कानून के द्वारा वोट देने का अधिकार मिला। इंग्लैण्ड में स्त्रियों के साथ बाकी भेदभाव लैंगिक अयोग्यता को हटाने के लिए 1919 में बने अधिनियम से हटा।
व्यक्ति शब्द पर अमेरिका में कुछ निर्णय
अमेरिका तथा अन्य देशों में व्यक्ति शब्द की व्याख्या का इतिहास कुछ अलग नहीं था। अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने Bradwell Vs.lllnois (1873) में व्यवस्था दी है कि विवाहित महिलाएँ व्यक्ति की श्रेणी में नहीं हैं और वकालत नहीं कर सकतीं। इसके दो वर्ष बाद ही Minor Vs. Happier Sett के केस में अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने यह तो माना कि महिलाएँ नागरिक हैं पर यह भी कहा कि वे विशेष श्रेणी की नागरिक हैं और उन्हें मत डालने का अधिकार नहीं हैं। अमेरिका में 21 वर्ष से ऊपर की महिलाओं को मत देने की अनुमति अमेरिकी संविधान के 19वें संशोधन (1920) के द्वारा ही मिल पायी।
व्यक्ति शब्द पर दक्षिण अफ्रीका में कुछ निर्णय
इस विवाद के परिपेक्ष में, दक्षिण अफ्रीका का जिक्र करना जरुरी है। यहाँ पर इस तरह के पहले मुकदमे Schle Vs. Incoroporated (1909), में महिलाओं को व्यक्ति शब्द में नहीं शामिल किया गया और उन्हें वकील बनने का हकदार नहीं माना गया। पर केपटाउन की न्यायालय ने 1912 में माना कि महिलाएँ 'व्यक्ति' शब्द में शामिल हैं और वकील बनने की हकदार हैं। कहा जाता है कि इस तरह का यह एक पहला फैसला था लेकिन यह ज्यादा दिन तक नहीं चला। यह निर्णय अपीलीय न्यायालय द्वारा Incorporated Law Society Vs. Wokkey (1912) में रद्द कर दिया गया। इस अपीलीय न्यायालय के फैसले का आधार यही था कि महिलाएं व्यक्ति शब्द की व्याख्या में नहीं आती हैं।
व्यक्ति शब्द पर भारत में कुछ निर्णय
कलकत्ता और पटना उच्च न्यायालय
अपने देश में भी 'व्यक्ति' शब्द की व्याख्या करने वाले मुकदमे हुए हैं। पहले वकील नामांकित करने का काम उच्च न्यायालय करता था। अब यह काम बार कौंसिल करती है। वकील नामांकित करने के लिए लीगल प्रैक्टिशनर अधिनियम हुआ करता था इसमें 'व्यक्ति' शब्द का इस्तेमाल किया गया था। महिलाओं ने इसी अधिनियम के अन्दर वकील बनने के लिए कलकत्ता एवं पटना उच्च न्यायालयों में आवेदन पत्र दिया। कलकत्ता उच्च न्यायालय की पाँच न्यायमूर्ति की पूर्ण पीठ ने 1916 में {In re Reging Guha (ILR yy Calcutta290 = 351C 925)} तथा पटना उच्च न्यायालय की तीन न्यायमूर्तियों की पूर्ण पीठ ने 1921 में {In re Sudhansu Bala Mazra (A.I.R. 1922 Patna269) 8 ने निर्णय दिया कि महिलाएँ व्यक्ति शब्द में शामिल नहीं हैं और उनके आवेदन को निरस्त कर दिया गया। इसके बाद यह प्रश्न नहीं उठा क्योंकि 1923 में The Leagal Practitioners (Women) Act के द्वारा महिलाओं के खिलाफ इस भेदभाव को दूर कर दिया गया।
पर क्या किसी उच्च न्यायालय ने महिलाओं के पुराने कानून में व्यक्ति होना मानाः-
जी हां-वह है इलाहाबाद उच्च न्यायालय। क्रानीलिआ सोरबजी, एक पारसी महिला थीं। उनका भाई बैरिस्टर था और वह इलाहाबाद वकालत करने आया। वह उसी के साथ उसके घर आई। उन्हें वकालत का पेशा अच्छा लगा और उन्होंने वकालत करने की ठानी। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सामने अपना आवेदन पत्र वकील बनने के लिये दिया जो पहले खारिज कर दिया गया पर उनका 1 अगस्त 1921 को वकील की तरह नामित करने के लिये दिया गया आवेदन पत्र, 9 अगस्त 1921 में स्वीकार हुआ। यह नामांकन उच्च न्यायालय की इंग्लिश (प्रशासनिक) बैठक में हुआ था इसलिए यह प्रकाशित नहीं है।
क्रानीलिआ सोरबजी 'व्यक्ति' शब्द के अन्दर नामांकित होने वाली भारत की ही पहली महिला नहीं, बल्कि व्यक्ति खण्ड के अधीन दुनिया में कहीं भी नामांकित होने वाली पहली महिला थीं। क्रानीलिआ से पहले भी कई महिलाएँ नामांकित हुई हैं, लेकिन वे विशेष कानून की वजह से हुआ था जिसमें महिलाओं को वकील बनने का अलग से अधिकार दिया गया था।
व्यक्ति शब्द पर विवाद का अन्त
इस विवाद का अन्त कनाडा के एक मुकदमे Edwards Vs. Attorney General में हुआ। कनाडा के गर्वनर जनरल को सेनेट में किसी व्यक्ति को नामांकित करने का अधिकार था। सवाल उठा कि क्या वे किसी महिला को नामांकित कर सकते हैं। कैनेडा के उच्चतम न्यायालय ने सर्व सहमति से निर्णय लिया कि महिलाएँ व्यक्ति शब्द में शामिल नहीं हैं। इसलिए वे नामित नहीं हो सकती है। इस फैसले के खिलाफ अपील में, प्रिवी कांऊसिल ने स्पष्ट किया है कि, 'व्यक्ति शब्द में स्त्री-पुरुष दोनों हो सकतें हैं और यदि कोई कहता है कि व्यक्ति शब्द में स्त्रियों को क्यों शामिल किया जाय तो जवाब है कि क्यों नहीं?' लेकिन यह वर्ष 1929 में हुआ।
जय हिंद।हमारे द्वारा कुछ वेबसाइटें हैं जो शायद आपके मतलब की हो सकती है जैसे क्राइम फ्री इण्डिया फोर्स से जुड़ने के लिये वेबसाइड है।
www.crimefreeindiaforce.com और पत्रकार बनने के लिये AMB Live न्यूज एजेंसी से जुड़ने के लिये वेबसाइट है। www.amblive.com और पत्रकारों के लिये www.rastriyapatrkarparishad.com और जिनको स्वरोजगार की जरूरत है उनके लिये www.espkindia.in और जिनको जीवन साथी की है तलाश यानि वर वधू ढूढ़ने के लिये www.rishtonkaghar.in और जो अकेले हैं यानि भारत की फेसबुक की तरह www.chatsetdate.com और अपने व्यवसाय की फ्री वेबसाइट के लिये www.landyn.in और ज्यादा जानकारी के लिये सुबह 10 से शाम 5 बजे तक सिर्फ फोन करके ही बात करें।फोन नम्बर 0800-6681155
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